न्यायपालिका के भ्रष्टाचार की जांच
हमारे देश की न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार काफी चरम सीमा पर पहुंच गया है, आए दिन हम अखबारों में पढ़ते हैं कि फलां-फलां जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था में जजों के भ्रष्टाचार को जाँच करने के लिए और उनके ऊपर मुकदमा चलाने के लिए कोई भी स्वतन्त्र ऐजेंसी नहीं है। जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार की बात भी जन लोकपाल बिल में लिखी गई है।
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नियन्त्रण की वर्तमान व्यवस्था
वर्तमान व्यवस्था के मुताबिक अगर किसी जज के भ्रष्टाचार के खिलाफ एफ.आई.आर दर्ज करनी है तो चीफ जस्टिस ऑफ इण्डिया से इजाज़त लेनी पड़ती है। लेकिन जनलोकपाल कानून में लिखा है कि अब चीफ जस्टिस ऑफ इण्डिया से इजाज़त नहीं लेनी होगी, क्योंकि अभी तक का इतिहास यह बताता है कि जब-जब चीफ जस्टिस ऑफ इण्डिया से इजाज़त मांगी गई, तब-तब उन्होंने भ्रष्ट जजों के खिलाफ इजाज़त देने से मना कर दिया।
कई लोगों का ये मानना है कि भ्रष्ट जजों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की पावर लोकपाल को नहीं दी जाए. उनका मानना है कि आज का जो सिस्टम है कि चीफ जस्टिस ऑफ इण्डिया ही भ्रष्ट जजों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की परमिशन देते है, यही सिस्टम चालू रखा जाए। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये सिस्टम ठीक है? क्या इससे न्याय व्यवस्था के अन्दर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है? या ये भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है?
जनलोकपाल कानून के बाद
किसी जज के भ्रष्टाचार की जांच करने की इजाज़त और दोषी पाए जाने पर उसके खिलाफ मुकदमा शुरू करने की इजाज़त लोकपाल की सात सदस्यीय बैंच देगी। जनलोकपाल बिल में सुझाव दिया है कि भ्रष्ट जज के खिलाफ एफ.आई.आर दर्ज करने के पहले देश के मुख्य न्यायधीश की जगह लोकपाल के सात सदस्यों (जिसमें कानूनी पृष्ठभूमि के लोग बहुतायत में हों), की बैंच इस बारे में निर्णय लें और खुले में इसकी सुनवाई की जायेगी ताकि पूरी दुनिया को ये पता चल सके कि इजाज़त ठीक दी गई या गलत दी गई।
न्यायपालिका को लेकर भ्रम
ड्राफ्टिंग समिति के अन्दर अब न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार के अहम मुद्दे पर चर्चा शुरू हुई है, मीडिया में कुछ जगह ऐसा छप रहा है कि उच्च न्याय-व्यवस्था को लोकपाल के दायरे में लाया जाएगा। इससे एक भ्रम पैदा होता है कि न्याय व्यवस्था की स्वतन्त्रता को खतरा पैदा होगा।
भ्रष्ट जजों को चिन्हित करके उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने से हमारी न्याय व्यवस्था की छवि और उसकी स्वतन्त्रता बढ़ेगी। यदि उनके नामों को छिपाकर रखा गया तो ये गन्दी मछली की तरह सारे तालाब को गन्दा कर देंगे। कुछ भ्रष्ट जजों को संरक्षण देने से तो हमारी न्याय व्यवस्था की स्वतन्त्रता और खतरे में पड़ जाएगी।
संयुक्त लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग समिति की तीसरी बैठक में श्री पी. चिदम्बरम ने कहा कि देश के दो पूर्व न्यायधीश जनलोकपाल बिल के इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं। उनका इशारा जस्टिस वेंकटचेलैया और जस्टिस जे.एस. वर्मा की तरफ था।
जस्टिस वेंकटचेलैया तो स्वयं खुद इस गलत प्रक्रिया के भुक्त भोगी हैं। जब वे देश के प्रधन न्यायधीश थे तो खुद श्री पी. चिदम्बरम ने उनसे जस्टिस अजीत सेन गुप्ता के खिलाफ एफ.आई.आर दर्ज करने की इजाज़त मांगी थी जो उन्होंने नहीं दी थी। सबूतों की परिपक्वता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रिटायर होने के अगले ही दिन जस्टिस अजीत सेन गुप्ता के घर पर सीबीआई के छापे पड़ गए और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसे सबूत होने के बावजूद उनके खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करने की इजाज़त नहीं दी गई थी। इसीलिए अब जनता की उम्मीद है कि जो प्रणाली आज तक न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार को संरक्षण देती आई है, सब मिलकर उसे बदल दें।
देश इस वक्त ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। एक तरफ जहां चारों ओर भ्रष्टाचार, भारत के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है, तो दूसरी तरफ जनता के संगठन और आन्दोलन ने आशा की एक नई किरण जगा दी है। इस ऐतिहासिक मौके पर यदि न्याय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को छोड़ दिया जाएगा तो देश हम सबको कभी माफ नहीं करेगा।
जस्टिस वेंकट चेलैया ने एक न्यायिक सुधार बिल का मसौदा तैयार किया है और वे चाहते हैं कि न्याय-व्यवस्था के भ्रष्टाचार की बातें उस कानून के तहत लाई जाएं। उनका यह सुझाव बहुत अच्छा है। पर इनके द्वारा बनाए गए बिल का मसौदा अभी सार्वजनिक नहीं हुआ है। अभी तो उस पर काफी काम होना बाकी है।
कुछ लोगों ने कहा है कि लोकपाल के दायरे में न्याय-व्यवस्था के भ्रष्टाचार को लाने से उनके काम का बोझ कई गुना बढ जाएगा। यह लोगों को भ्रमित करने वाली बात है अभी देश में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को मिलाकर कुल करीब 1000 जज हैं। एक अवकाशप्राप्त प्रधन न्यायाधीश ने एक बार कहा था कि उच्च न्याय व्यवस्था में करीब 20 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। अगर यह मान भी लिया जाए कि इन सबके खिलाफ एक साथ शिकायतें आ जाएंगी तो करीब 200 शिकायतें ही आएंगी। इतने थोड़े से काम से लोकपाल की व्यवस्था चरमराने वाली नहीं है।
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जजों की परिस्थितियों को जज ही समझते हैं। इसलिए उनके भ्रष्टाचार के बारे में निर्णय लेने के अधिकार जजों को ही दिए जाने चाहिए। यह बात सरासर गलत है। एक जज अगर रिश्वत लेता है तो इसमें ऐसी कौन सी समझने या न समझने वाली बात है। रिश्वत लेना तो गलत है ही। इस तरह तो हमारे नेतागण भी कहेंगे कि नेताओं के भ्रष्टाचार के बारे में केवल नेता ही निर्णय लेंगे, पुलिस विभाग वाले कहेंगे कि पुलिस विभाग के अधिकारी ही अपने बंधुओं के भ्रष्टाचार के बारे में निर्णय लेंगे। इस तर्क के पीछे कहीं न अपनी बिरादरी के लोगों को बचाने की मंशा नज़र आती है। ऐसे तर्कों से हमें बचना है।