Sunday, July 31, 2011

अन्ना के आन्दोलन पर नेताओं का अंट-शंट

कल शाम एनडीटीवी के  एक कार्यक्रम में केन्द्रीय मंत्री नारायण सामी, अन्ना के जनलोकपाल बिल के बारे में  सफ़ेद झूंठ बोलते पकड़े गए.  उन्होंने कहा कि अन्ना लोकपाल के नौ सदस्यों को केंद्र और राज्यों के तमाम कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की जांच का काम दिलवाना चाहते हैं. जब उनके सामने साफ़ किया गया कि अन्ना तो लोकपाल की तरह राज्यों में भी लोकायुक्त बनाने की मांग कर रहे है. उनसे पूछा भी गया कि केंद और राज्यों का सारा काम लोकपाल को ही सौंपने की बात कहाँ की जा रही है? अन्ना के जनालोकपाल की किस क्लॉज़ में ऐसा लिखा गया है? उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था.

इसी कार्यक्रम में जब उनसे पूछा गया कि आप निचले स्तर के अधिकारियों को लोकपाल कानून के दायरे में क्यों नहीं ला रहे हैं, तो उन्होंने पहले कहा कि राशन, अस्पताल, स्कूल आदि का भ्रष्टाचार देखना राज्य सरकारों का काम है. फिर जब उनसे पूछा गया कि रेलवे, टेलीकाम, खाद्य, कृषि, स्वास्थ्य आदि तमाम  मंत्रालयों में निचले स्तर के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की खबरें आती रहती हैं. इनका भ्रष्टचार किसकी जांच के दायरे में आयेगा तो इसका भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
देश के नेता और बुद्धिजीवी लोग किस दुनिया में जी रहे हैं इसकी एक बानगी देखिए. एक रेडियो कार्यक्रम में राज्य सभा सांसद (और संविधान के बारे में कई किताबों के लेखक) सुभाष कश्यप ने कहा कि अन्ना और उनके साथियों को अगर कानून बदलवाने हैं तो चुनाव लड़कर आना चाहिए. उनसे पूछा गया कि "एक सामान्य नागरिक को ड्राइविंग लाइसेंस बिना रिश्वत दिए नहीं मिलता है, जो रिश्वत न दे वो धक्के खाकर बनवाए." तो क्या इसके खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए भी चुनाव लड़ना होगा. इसके जवाब में उन्होंने बड़ा बचकाना तर्क दिया. कहा कि "मेरे पास ड्राइविंग लाइसेंस है, मुझसे तो किसी ने रिश्वत नहीं मागी. ड्राइविंग लाइसेंस या पासपोर्ट जैसी चीजों के लिए रिश्वत माँगने की कहानियाँ एकदम बकवास हैं." अब उन्हें कौन बताए कि संविधान पर दर्ज़नों किताबें लिखने से देश की हकीकत नहीं बदलती. बड़े अधिकारी, नेता और सांसदों से रिश्वत नहीं मांगी जाती. बल्कि उनके लिए और  उनकी वजह से मांगी जाती है.

Thursday, July 28, 2011

अखबार बांटने वाले लड़के

दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके में अखबार बांटने वाले लड़कों ने कल हमारे पैसे इसलिए लौटा दिए क्योंकि "अन्ना जी हमारे लिए ही तो लड़ रहे है". अखबारों में पर्चे डालकर बांटने के लिए पहले तो उन्होंने खूब मोलभाव किया. उनके कार्डिनेटर ने पैसे ले भी लिए. लेकिन हमारे आने के बाद उनकी बैठक हुई. तय करके फोन किया गया, "आपसे तो गलती से पैसे ले लिए गए, आप प्लीज़ ये हमसे वापस ले जाइए, हम इस काम के पैसे नहीं ले सकते क्योंकि अन्ना जी हमारे लिए ही तो लड़ रहे हैं" ये शब्द सुनकर आँखों में आंसू आ गए. अधिकतर लड़के अलसुबह चार बजे उठकर अखबार बाँटते हैं, फिर कालेज जाते हैं. अखबार में पर्चे बांटना उनकी दिहाड़ी का हिस्सा है. उनका निर्णय दिल को छू गया और उम्मीद बंधी कि शायद सरकार आम आदमी की इस भावना को समझेगी.

लेकिन दोपहर आते आते यह उम्मीद टूट गई. लोकपाल से थोड़े बहुत बदलाव की उम्मीद लगाए बैठे देश के तमाम लोगों को सरकार ने बेशर्मी से झिड़क दिया. कह दिया कि "रिश्वतखोरी तो भ्रष्टाचार से अलग मामला है, अत: लोकपाल से बाहर. जिला, तहसील, निगम, पंचायत आदि में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए तो बहुत बड़ा विभाग बनाना पड़ेगा अत: वह भी लोकपाल से बाहर. प्रधानमंत्री, जजों और सांसदों के भ्रष्टाचार की जांच लोकपाल करेगा तो लोकतंत्र, संविधान और संसद की गरिमा खतरे में पड़ जाएगी. अत: यह भी लोकपाल से बाहर" तब आम आदमी के लिए इस लोकपाल क्या बचा? झुनझुना?

आम आदमी रोजाना जो भ्रष्टाचार झेल रहा है, उसका निदान सरकारी लोकपाल बिल में नहीं है, इसकी चिंता न किसी अखबार में है, न टीवी पर.  जबकि यही देश की जनता के साथ सबसे बड़ा धोखा है.  क्या आम आदमी को यह समझ में आया होगा कि सरकारी लोकपाल बिल में उसकी अपनी ज़िन्दगी के साथ कैसा खिलवाड़ किया गया है? क्या आज सुबह भी अखबार बांटने वाले उन लड़कों ने सोचा होगा कि 'अन्ना जी हमारे लिए ही तो लड़ रहे हैं"? 

लोकपाल के नाम पर जनता को धोखा

तय हो गया है कि सरकार जो लोकपाल बिल लाने जा रही है उसमें - 
  • रिश्वतखोरी से दुखी आम आदमी की शिकायतें लोकपाल नहीं सुनेगा. 
  • निचले स्तर के अधिकारियों व कर्मचारियों के भ्रष्टाचार  की जन लोकपाल के दायरे में नहीं आएगी 
  • नगर निगम, पंचायत, विकास प्राधिकरणों का भ्रष्टाचार इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा 
  • राज्य सरकारों का भ्रष्टाचार इसके दायरे में नहीं आएगा
  • प्रधानमंत्री, जजों और सांसदों का भ्रष्टाचार इसके दायरे में नहीं आएगा, यानि  २-जी, कैश फॉर वोट, कामनवेल्थ, आदर्श, येदुरप्पा, जैसे घोटाले इससे एकदम बाहर रखे गए हैं. 
  • ७ साल से पुराना कोई भी मामला इसकी जांच के दायरे में नहीं आएगा... अर्थात बोफोर्स, चारा घोटाला जैसा कोई भी घोटाला इसकी जांच के दायरे से पहले ही अलग कर  दिया गया है. 
  • लोकपाल के सदस्यों का चयन प्रधानमंत्री, एक मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत एक बुद्धिजीवी, एक ज्यूरिस्ट, के हाथ में होगा क्योंकि इसके चयन के लिए जो समिति बनेगी उसमें एक बाकी के एक दो लोगो और होंगे, और उनकी कौन सुनेगा?
  • लोकपाल के सदस्यों को ही सारा काम करना होगा यानि सारा का सारा काम ८ सदस्य करेंगे, अफसरों के पास निर्णय लेने के अधिकार नहीं होंगे, इससे सारा का सारा काम दो-तीन महीने में ही ठप हो जाएगा.
ज़ाहिर है कि नेता एक अच्छा लोकपाल बिल नहीं ला सकते. क्योंकि अगर एक सख्त लोकपाल कानून बना तो देश के आधे से अधिक नेता दो साल में जेल चले जायेंगे और बाकी की भी दुकानदारियाँ बंद हो जाएंगी. इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि हम यानी देश के आम लोग इस कानून को बनवाने की पहल करें. 

अभी नहीं तो कभी नहीं

१६ अगस्त से एक सप्ताह की छुट्टी लीजिए  और कमर कसकर तेयार हो जाइए एक निर्णायक आन्दोलन के लिए. १६ अगस्त की सुबह तिरंगा लहराते हुए अपने अपने घर से निकालिए. 

Wednesday, July 27, 2011

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम अन्ना की चिट्टी

डा. मनमोहन सिंह जी,
प्रधानमंत्री , भारत सरकार,
नई दिल्ली

माननीय डा. मनमोहन सिंह जी,
मैं जब 5 अप्रैल को अनशन पर बैठा तो आपकी सरकार संयुक्त समिति बनाने के लिए तैयार हो गई। हम बड़ी उम्मीद और पूरी ईमानदारी के साथ संयुक्त समिति में शामिल हुए। चूंकि पूरा आंदोलन जन लोकपाल बिल को लेकर था, हमें उम्मीद थी कि संयुक्त समिति जन लोकपाल बिल की कुछ छोटी-मोटी बातों को छोड़कर बाकी बातें मान लेगी। दुर्भाग्यवश दो महीने चली इन बैठकों के बाद आज हम वहीं खड़े हैं जहां 5 अप्रैल को खड़े थे, जब अनशन चालू हुआ था। 5 अप्रैल को भी दो ड्राफ्ट थे - एक जनलोकपाल बिल और दूसरा सरकारी ड्राफ्ट। आज भी दो ड्राफ्ट हैं।
सरकारी लोकपाल बिल का जो मसौदा संयुक्त समिति के पांच मंत्रियों ने प्रस्तुत किया है, वह देश के साथ एक मज़ाक है। सरकारी लोकपाल बिल का दायरा इतना छोटा रखा गया है कि उसमें आम आदमी से जुड़ा किसी भी तरह का भ्रष्टाचार नहीं आता। पंचायत के कामों में भ्रष्टाचार, गरीबों के राशन की चोरी, भुखमरी का जीवन जी रहे मजदूरों की नरेगा-मजदूरी की चोरी.... एक आम आदमी से जुड़े किसी भी भ्रष्टाचार को सरकारी लोकपाल बिल में कोई जगह नहीं दी गई है। सरकार दावा करती है कि लोकपाल केवल बड़े स्तर का भ्रष्टाचार देखेगा। वहां भी सरकारी दावा खोखला नज़र आता है क्योंकि पिछले दिनों सामने आया कोई भी घोटाला सरकारी लोकपाल के दायरे में नहीं आता। आदर्श घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, खाद्यानों का घोटाला, रेड्डी भाइयों का घोटाला, ताज कॉरीडोर घोटाला, झारखंड मुक्ति मोर्चा घोटाला, कैश फॉर वोट घोटाला, चारा घोटाला, कर्नाटक का भूमि घोटाला इत्यादि- इनमें से कोई सरकारी लोकपाल बिल के दायरे में नही आता। ऐसे में एक बहुत बड़ा सवाल उठता है कि सरकारी लोकपाल बिल के दायरे में आखिर आता क्या है ? क्या सरकारी लोकपाल दिखावा बनकर नहीं रह जाएगा? अभी तक सरकार की यही नीति रही है - नई-नई संस्थाएं बना दो लेकिन उन्हें कोई अधिकार और शक्ति न दो।
सरकारी लोकपाल भी उसी तरह की संस्था बनने जा रही है जिसके पास न अधिकार होंगे और न शक्ति। सारे राज्यों के कर्मचारियों को आपने इस कानून के दायरे से बाहर रखा है। हमारा कहना है कि केंद्रीय कर्मचारियों पर निगरानी रखने के लिए लोकपाल बनाया जाये और इसी कानून के तहत हर राज्य में लोकायुक्त बनाया जाए। प्रणव मुखर्जी साहब ने मीिंटंग में कहा कि राज्यों के मुख्यमंत्री इसके लिए तैयार नहीं हैं। पहली बात तो कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पूछने की ज़रूरत ही नहीं थी। क्योंकि यह मामला संविधान की  Concurrent  List में आता है। और इस पर केंद्र सरकार कानून बना सकती है। और दूसरी बात कि कांग्रेस शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने लिखा था कि वे पार्टी हाईकमान की बात मानेंगे जो फैसला पार्टी हाईकमान लेगी वह उन्हें मंजूर होगा।
आप मुख्यमंत्रियों के पाले में गेंद डाल दे रहे हैं और मुख्यमंत्री आपकी तरफ। दोनों अपनी ज़िम्मेदारी एक दूसरे के ऊपर डाल रहे हैं। इससे भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जा सकता है? हमें समझ में नहीं आता कि सरकार एक ही कानून के ज़रिए लोकपाल और लोकायुक्त बनाने में क्यों हिचक रही है? क्या राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए जनता को अभी और कई सालों तक इंतजार करना पड़ेगा।
संयुक्त समिति की बैठकों में हमने बार-बार आपके मंत्रियों से कहा कि लोकपाल के दायरे में सारे सरकारी कर्मचारी आने चाहिए। एक आम आदमी को तो निचले स्तर के अधिकारियों के भ्रष्टाचार से रोज जूझना पड़ता है और उन्हीं को आपने बाहर रख दिया। भारत सरकार हर साल 30 हज़ार करोड़ रूपए से ज्यादा के राशन की सिब्सडी देती है जिसमें से 80 प्रतिशत की चोरी हो जाती है। स्कूल, अस्पताल, सड़क आदि के काम में तमाम तरह का भ्रष्टाचार होता है जो सरकारी लोकपाल बिल के दायरे में नहीं है। ये सारी चोरी निचले स्तर के अधिकारियों द्वारा ही की जाती है।
स्वर्गीय राजीव गांधी जी ने कहा था कि आज सरकार के एक रुपए में से जनता तक मात्र 15 पैसा ही पहुंचता है और बाकी का 85 प्रतिशत या तो चोरी हो जाता है या जनता को उसका कोई लाभ नहीं मिलता। हमारा यह कहना है कि अगर सौ रुपए में से 25 पैसे (यानि एक रुपए में मात्र एक चौथाई पैसा के बराबर) भ्रष्टाचार रोकने के लिए खर्च कर दिए जाएं तो 15 प्रतिशत की जगह 100 प्रतिशत पैसे का लाभ सीधे जनता को मिलने लगेगा। आज़ादी के 62 सालों के बाद तक हमने प्रभावी भ्रष्टाचार निरोधक तंत्र नहीं बनाया। और आज भी सरकार की इच्छा शक्ति नज़र नहीं आती।
आपके मंत्रियों का कहना था कि देश में केंद्र और राज्य सरकारों को मिलाकर सवा करोड़ से ज्यादा कर्मचारी हैं। इतने कर्मचारियों के भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने के लिए तो ढेरों कर्मचारियों की ज़रूरत पड़ेगी। हमारा आपसे पूछना है कि क्या इस कारण से आप इन सबको भ्रष्टाचार करने को खुला छोड़ देंगे। हमारा देश बहुत बड़ा है। हमारे देश में ढेरों सरकारी कर्मचारी है। तो ज़ाहिर बात है कि इनके भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने के लिए भी ढेरों कर्मचारियों की ज़रूरत पड़ेगी।
मैं अतिविनम्रता के साथ आपसे जानना चाहता हूं कि एक आम आदमी भ्रष्टाचार की शिकायत लेकर आज कहां जाए? क्या उसे समाधान देना आपकी सरकार का फ़र्ज़ नहीं है? आज आज़ादी के 62 सालों के बाद अगर आपकी सरकार आम आदमी को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने में अपने आपको असमर्थ पाती है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
कानून की नज़रों में भ्रष्टाचार एक उतना ही घोर अपराध है जितना बलात्कार व हत्या। आज भ्रष्टाचार सरकार के रग-रग में छा गया है। कल यदि हत्या और बलात्कार की वारदातें इतनी बढ़ जाएं जितना आज भ्रष्टाचार बढ़ गया है, तो क्या आपकी सरकार का यही रवैया होगा? मेरा मानना है कि किसी भी सरकार का सर्वप्रथम कार्य समाज को अपराध से मुक्ति दिलाना है। किसी भी हालत में कोई भी सरकार यह नहीं कह सकती कि हम अपराध से मुक्ति दिलाने में असमर्थ है और यह ऐसे ही चलेगा।
आपकी सरकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम उठाने ही होंगे। और हम इससे कम के लिए तैयार नहीं है। मैं आम आदमी के भ्रष्टाचार का समाधान खोजने के लिए कटिबद्ध हूं। इसके लिए मैं और मेरे साथी बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। आपकी सरकार के कुछ मंत्रियों ने और पार्टी के कुछ उच्च पदाधिकारियों ने धमकी दी है कि यदि 16 अगस्त से मैं अनशन पर बैठा तो हमारे आंदोलन को भी वैसे ही कुचल दिया जाएगा जैसे बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचला गया था। ऐसे उच्च पदाधिकारियों के इस तरह के बयान दुर्भाग्यपूर्ण हैं। ये बयान संविधान के िख़लाफ हैं क्योंकि संविधान इस देश के नागरिकों को बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इक्कठा होकर प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार देता है। इस तरह की धमकियां हमारे मौलिक अधिकारों का हनन हैं। लेकिन फिर भी यदि आपकी सरकार हमारे आंदोलन को कुचलती है तो हम हर स्थिति के लिए तैयार हैं। हम गिरफ्तारियां देने के लिए तैयार हैं। लाठियां खाने को तैयार हैं। पर किसी भी हालत में हमारा हाथ नहीं उठेगा। पूरा आंदेालन अहिंसात्मक होगा।  हम हर बलिदान देने के लिए तैयार है। पर अब इससे और ज्यादा भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे।
ऐसा सुनने में आया कि आपकी सरकार अगस्त के पहले हफ्ते में संसद में लोकपाल बिल प्रस्तुत करेगी। हमारी आपसे यह विनती है कि संसद में जन लोकपाल बिल ही प्रस्तुत किया जाए। अभी जो सरकारी लोकपाल बिल का मसौदा है उसमें ढेरों कमियां है। उन कमियों की सूची इस पत्र के साथ संलग्न है। उसमें वो कमियां दूर करके ही संसद में उसे प्रस्तुत किया जाए।
संसद उस बिल पर क्या निर्णय लेती है - इसके लिए हम संसदीय प्रक्रियाओं का इंतजार करने के लिए तैयार हैं। लेकिन कम से कम आपकी सरकार एक सख्त कानून तो संसद में प्रस्तुत करे। यदि संलग्न सूची के मुताबिक सभी कमियों को दूर करके एक सख्त लोकपाल कानून संसद में 16 अगस्त से पहले प्रस्तुत नहीं किया गया, तो मेरे पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं रह जाएगा कि मैं 16 अगस्त से अनििश्चत कालीन अनशन के लिए फिर से बैठूं। जब मैंने 8 अप्रैल को पिछला अनशन तोड़ा था ऐसा बोला था कि यदि सरकार 15 अगस्त तक एक सशक्त कानून पारित नहीं करती तो मैं 16 अगस्त से फिर से अनशन पर बैठूंगा।
मुझे पूरी उम्मीद है कि आपकी सरकार जन भावनाओं के अनुरूप भ्रष्टाचार को रोकने के लिए संसद में एक सख्त कानून रखने का साहस दिखाएगी। मुझे आपके उत्तर का इंतजार रहेगा।

भवदीय





कि. बा. हज़ारे (अण्णा)

Friday, July 15, 2011

सत्ता के शब्दजाल और लोकपाल

देश में एक प्रभावी और स्वायत्त लोकपाल से कौन डर रहा है? भ्रष्टाचार से दुखी आम आदमी या भ्रष्टाचार में लिप्त सत्ता वर्ग और उसके कृपापात्र? जिस समय देश में "कैसा लोकपाल चाहिए" पर बहस होनी चाहिए, उस समय जानबूझकर ऐसे मुद्दे उठाए जाते हैं जो बहस को मूल मुद्दे से दूर ले जाएं. अन्ना हज़ारे नाम के मौजी फकीर के पीछे जिस तरह हर उम्र हर वर्ग के लोग खड़े हो रहे हैं उससे आखिर किसको डर लग रहा है? अन्ना हज़ारे कह रहे हैं कि अगर सरकार लोकपाल बिल में आम आदमी को भ्रष्टाचार से राहत दिलाने वाले प्रावधान नहीं लाती है तो 16 अगस्त से फिर अनशन होगा. अन्ना की बात को अनसुना कर सारी बहस को सिर्फ तीन शब्दों में अटका दिया जा रहा है - प्रधानमंत्री, संसद और जज. दुन्हाई दी जा रही है कि संसद की महिमा, प्रधानमंत्री की गरिमा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी. यह सत्ता का शब्दजाल है. 63 साल से लोकतंत्र के नाम पर जनता को छलने का काम इसी तरह के शब्दजालों के सहारे हुआ है. इस ओर जेपी ने उंगली उठाई थी अब अन्ना ने उठाई है. अन्ना की आवाज़ को अगर देश के आम आदमी ने सुन लिया तो यह शब्द जाल टूट जाएगा. अन्ना की मांग में प्रधानमंत्री, संसद और जजों के भ्रष्टाचार से भी ज्यादा अहमियत आम आदमी को रोज़ाना के भ्रष्टाचार से राहत दिलवाने को दी गई है. लेकिन इसे लेकर किसी दिग्गज या मंत्री की कोई टिप्पणी नहीं आती. "आम आदमी के साथ" के नारे वाली पार्टी आम आदमी के सवाल की ओर ध्यान नहीं देना चाहती.  इसीलिए छपटाहट और बौखलाहट है.  

Thursday, July 7, 2011

लोकपाल के बहाने उठे कुछ सवाल?


देश में नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई के लिए एक स्वतंत्र लोकपाल बनवाने की मांग उठी तो लगभग पूरी नेता बिरादरी एक हो गई लगती है. सबको संसद की गरिमा याद आ रही है. सांसदों की भूमिका याद आ रही है. कहा जाने लगा है कि कानून बनाने का काम तो सांसदों का है. पशुओं के चारे को पचा जाने तक में माहिर कुछ नेता तो इसे पूरे रानजीतिक तंत्र के खिलाफ साज़िश तक करार देने लगे हैं. लोकतंत्र और संसद की गरिमा के बहाने भ्रष्ट व्यवस्था की पैरवी की कोशिशों पर कुछ सवाल उठने लाज़मी हैं. 
सबसे अहम सवाल यह है कि संसदीय लोकतंत्र की परंपराएं क्या कोई अंधविश्वास हैं? यह ठीक है कि लोकतंत्र में कानून बनाने का अधिकार सांसदों का  है लेकिन, जब भ्रष्टाचार का दीमक लोकतंत्र की जड़ खोद रहा हो, और इसके खिलाफ लोकपाल कानून 42 साल से संसद में पड़ा सड़ रहा हो, तो भी लोग महज़ इसलिए चुप बैठे रहें कि कानून बनाना तो सांसदों का काम है. जनता आवाज़ उठाए तो उसे कहा जाए कि अगर कानून बनाना है तो जाओ पहले चुनाव जीत कर आओ. इससे बड़ा मज़ाक कानून बनाने के एकाधिकार के साथ क्या हो सकता है कि हमारे सांसद 42 साल से एक कानून को दबाए बैठे हैं? क्या यह लोकतंत्र के मंदिर यानि संसद का अपमान नहीं है.