उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के पहले एक बड़ा सवाल - क्या हमारे देश में चुनाव का मतलब यह नहीं हो गया की जनता अगले पांच साल के लिए अपना राजा चुने. जनता यह चुने की अगले पांच साल उसे किसके सामने गिडगिडाना है. उसकी मेहनत की कमाई पर ऐश करते हुए, उसे कौन लूटेगा?
- मनीष सिसोदिया
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीज़े आने में अब कुछ ही घंटे का समय बचा है. हर चुनाव की तरह इसमें भी कोई जीतेगा और कोई हारेगा. लेकिन जनता को क्या मिलेगा? इसके पहले कि हार और जीत की समीक्षा का नशा उफान पर आए, इन चुनावों की उपयोगिता पर भी एक आकलन होना चाहिए. यह आकलन इसलिए भी ज़रूरी है कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक बड़े आंदोलन के बाद ये पहले चुनाव हैं और इन्हें आगामी लोकसभा चुनाव के सेमीफाईनल के रूप में भी देखा जा रहा है. ज़ाहिर है कि इन दोनों मुद्दों के आधार पर नतीजों की समीक्षा करने के लोभ से परंपरागत विश्लेषक नहीं बच पाएंगे और वे बुनियादी सवाल से भटकेंगे.
बुनियादी सवाल यह है कि एक सामान्य नागरिक, जो बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान है, इन चुनावों के बाद उसे क्या मिलेगा? वह अपनी रोजाना की जि़ंदगी में स्कूल - अस्पताल, सड़क से लेकर हर सरकारी दफ्तर के भ्रष्ट कामकाज से दुखी है. ड्राईविंग लाईसेंस लेना हो या किसी दुकान या फैक्ट्री का लाईसेंस, बिना रिश्वत के नहीं मिलता. मकान की रजिस्ट्री से लेकर नक्शा पास कराने तक में फाईल बिना रिश्वत आगे नहीं बढ़ती. किसान की अच्छी खासी ज़मीन अगर किसी बड़े व्यापारी की नज़र चढ़ जाए तो रातों रात उसे छीनने की योजना सरकार बना देती है. इसके बाद जब किसान का बेटा कोई सरकारी नौकरी करना चाहता है तो उससे लाखों रुपए रिश्वत में ले लिए जाते हैं. इसलिए सवाल यह नहीं है कि चुनाव नतीजों में कौन जीतेगा और कौन हारेगा. सवाल तो यह है कि एक सामान्य आदमी की जि़ंदगी में कुछ बदलाव आएगा? अगर नहीं! तो फिर यह चुनाव का नाटक किसलिए?