Tuesday, June 7, 2011

लोकपाल और प्रधानमन्त्री

सरकार प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है. यानि अगर प्रधानमन्त्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो उनकी जंाच नहीं की जा सकती. इसका अर्थ है प्रधानमन्त्री को किसी भी प्रकार की जांच अथवा मुकदमे से मुक्त होगा.

यह संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन होगा क्योंकि संविधान प्रधानमन्त्री को इस तरह की कोई प्रतिरक्षा नहीं देता है. संविधान इस प्रकार की प्रतिरक्षा केवल राष्ट्रपति को देता है. संविधान निर्माताओं ने सर्वोच्च पद पर किसी अस्थिरता से बचने के लिए यह व्यवस्था की है. प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखकर सरकार संविधान अनौपचारिक रूप में संविधान में ही संशोधन कर दे रही है.


सरकार का तर्क है कि यदि प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाता है तो इतने ऊंचे स्तर पर निष्क्रियता पैदा होगी. ड्रािफ्टंग समिति की 30 मई की बैठक में मन्त्रियों का तर्क था - "कल्पना कीजिए कि यदि प्रधानमन्त्री की कोई जांच की जाती है. तो क्या वह जांच जारी रहने तक कोई निर्णय ले पाएगा". प्रशांत भूषण ने उन्हें याद दिलाया कि बोफोर्स मामले में तत्कालीन प्रधानमन्त्री के खिलाफ सीबीआई जांच हुई थी. लेकिन इससे उनका निर्णय लेने का काम तो नहीं बन्द हुआ. इसी तरह नरसिंहा राव के कार्यकाल में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में जांच हुई थी.

अभी तक प्रधानमन्त्री के गलत काम की जांच सीबीआई कर सकती है. लेकिन सरकार के हिसाब से लोकपाल बनता है तो प्रधानमन्त्री के भ्रष्टाचार की जांच कोई नहीं कर पाएगा. यह हमारी भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्था को मजबूत बनाने की जगह कई कदम पीछे ले जाएगा.

प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के लिए एक और तर्क दिया गया - राजनीति से प्रेरित बेबुनियाद शिकायतों का ढेर लग जाएगा और प्रधानमन्त्री तो हमेशा जांच के घेरे में ही रहेगा. यह तर्क भी गलत है क्योंकि बेबुनियाद शिकायत लोकपाल ही खारिज कर देगा. लोकपाल की सात सदस्यीय बैंच पहले देखेगी कि क्या शिकायत में प्रधानमन्त्री के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं. यदि नहीं तो शिकायत तुरन्त खारिज हो जाएगी.

सरकार ने जनवरी के महीने में एक बेहद कमज़ोर लोकपाल बिल तैयार किया था. यह बिल इतना खराब था कि इसकी चौतरफा निन्दा हुई. देश के कई जाने माने सामाजिक सक्रिय लोगों ने एक वैकल्पिक जन-लोकपाल बिल तैयार किया. भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आन्दोलन सरकार के कमज़ोर कानून लाने के प्रयास के खिलाफ और जनलोकपाल बिल को पास करवाने के लिए शुरू हुआ. दिलचस्प बात यह है कि सरकार द्वारा तैयार कमज़ोर कानून में भी प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे में रखा जा रहा था. और अब सरकार उससे भी कमज़ोर कानून बनवाने की कोशिश कर रही है.
इन सबके चलते ही लगता है कि सरकार की मंशा ठीक नहीं है.

आखिर प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे में लाना क्यों ज़रूरी है. इसके कई कारण हैं. कई बार प्रधानमन्त्री के पास कई कई मन्त्रालय होते हैं. इसका मतलब होगा कि वे मन्त्रालय भी लोकपाल के दायरे से बाहर हो जाएंगे. यदि प्रधानमन्त्री लोकपाल के दायरे से बाहर रहेगा तो क्या सम्भव नहीं है कि खुद वही बाकी मन्त्रालयों के लिए भी पैसा वसूलने का केन्द्र बन जाएगा. कल्पना कीजिए कि कल मधु कोड़ा, ए.राजा, कलमाड़ी जैसा कोई व्यक्ति प्रधानमन्त्री बन जाता है तो क्या होगा.

इसके साथ ही प्रधानमन्त्री के पास देश की सबसे संवेदनशील सूचनाएं होती हैं. एक भ्रष्ट प्रधानमन्त्री देश के लिए अन्दर और बाहर, दोनों तरह से खतरा बन सकता है.

इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि प्रधानमन्त्री की जांच करने और समय पर कार्रवाई करने के लिए एक निष्पक्ष और स्वतन्त्र एजेंसी होनी चाहिए.

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