Saturday, February 4, 2012

चर्चा समूह : साप्ताहिक पर्चा-2

ये चर्चा समूह क्यों?
पिछले एक साल से अन्ना जी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार  के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। जिस संख्या में अगस्त महीने में लोग सड़कों पर उतरे और सरकार ने बार-बार आश्वासन  दिया कि शीत कालीन सत्र में हम एक सख्त लोकपाल क़ानून संसद में लाएंगे, उससे पूरी उम्मीद थी कि सरकार एक सख्त क़ानून संसद में जरूर पेश करेगी। हमें उम्मीद थी कि सरकार हमारी १०० प्रतिशत  बातें न मानें, लेकिन कम से कम ५० प्रतिशत बातें तो मान ही लेगी। लेकिन सरकार ने जो क़ानून संसद में रखा है वो इतना ख़तरनाक है कि 50 प्रतिशत  बातें मानना तो दूर वो तो आज की एंटी करप्शन व्यवस्था को भी ख़त्म कर देता है। 
ऐसा लगता है कि अब लड़ाई बहुत लंबी है। शायद सरकार जल्दी ये क़ानून पारित नहीं करेगी। ऐसा भी लगता है कि ये लड़ाई अब केवल जन लोकपाल की नहीं रही। अब ये लड़ाई जन लोकपाल से कहीं ज्यादा बड़ी बन गई है। ये अब जनतंत्र की लड़ाई बन गई है। एक तरफ तो सारे देश के लोग एक क़ानून की मांग कर रहे हैं, लेकिन फिर भी सरकार वो क़ानून पारित करने को तैयार नहीं है। क्या यही जनतंत्र है
अभी तक हमारे आंदोलन में हम केवल मीडिया के ज़रिए जनता तक अपनी बात पहुंचाते थे। मीडिया ने हमारा बहुत साथ दिया। मीडिया एक तरह से आंदोलन का हिस्सा ही बन गया। पर मीडिया की अपनी मज़बूरियां हैं। जैसे वह हमारी बात को पूरी तरह नहीं बता पाता। उसे कई बार काट छांटकर पेश किया जाता है। इससे जनता में कई प्रशन पैदा हो जाते हैं। अभी तक जनता को अपने प्रश्नों के जवाब नहीं मिल पाते क्योंकि जनता सीधे हम से सवाल नहीं कर पाती थी। चूंकि जनता का सीधे हम से संवाद नहीं था तो जनता सीधे अपने सुझाव भी हम तक नहीं पहुंचा पाती थी।
इसलिए ये जरूरी है कि हमारे आंदोलन में अपनी ऐसी व्यवस्था हो जिससे आंदोलन जनता से  सीधे  दो तरफा संवाद कर सके। लंबी लड़ाई के लिए ऐसी व्यवस्था बनाना जरूरी है। इसी दिशा में देशभर में गांवों और शहरों में चर्चा समूहों का गठन करने का निर्णय किया गया है।
हर चर्चा समूह को कोई एक कार्यकर्ता आयोजित करने की जिम्मेदारी लेगा। यह कार्यकर्ता उसी इलाके के लोगों में से कोई एक होगा। उसका काम केवल चर्चा समूह से उठने वाले प्रश्नों को आंदोलन तक लाना और आंदोलन से उनके जवाब अपने चर्चा समूह तक पहुंचाना होगा।
इन चर्चा समूहों में भारत की अन्य समस्याओं का भी ज़िक्र होगा। जैसे सबसे अहम् प्रशन है कि क्या आज का जनतंत्र भारत को गरीबी और  भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला सकता है क्या भारत वाकई जनतंत्र है पिछले हफ्ते के चर्चा समूह में एक प्रश्न हर जगह उठा- सभी पार्टियां भ्रष्ट हो गई है, किसे वोट दें? तो क्या भारत के लोग इस भ्रष्ट तंत्र के सामने बिल्कुल मजबूर हो गए हैं?
ऐसे कई प्रश्नों के सीधे जवाब नहीं हो सकते ? इन चर्चा समूहों का ये भी मकसद होगा कि ऐसे प्रश्नों पर देशभर में चर्चा हो और इस देश के लोग मिलकर इसका समाधान निकाले।
पिछले एक साल से सरकार ने अन्ना हज़ारे के आंदोलन को कदम-कदम पर धो  दिया है। सारा देश अन्ना के समर्थन में भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर उतर आया। पिफर भी सरकार ने देश को अच्छा क़ानून देने की बजाए कदम-कदम पर धोखा दिया। पिछले एक साल में जनता के साथ हुए धोखों के बारे में ही आज हम चर्चा करेंगे।

धोखा नं. 1: पांच अप्रैल को अन्ना अनशन पर बैठे। अनशन के चार दिन बाद ही सरकार ने लोकपाल क़ानून ड्राफ्रट करने के लिए एक संयुक्त समिति का गठन किया, जिसमें पांच लोग सरकार से थे और पांच अन्ना के सुझाव पर लिए गए. हम लोग बहुत उम्मीद के साथ इस कमेटी में गए। हम लग रहा था कि अब तो अच्छा क़ानून आ ही जाएगा। लेकिन सरकार की तो शुरू से ही नीयत ख़राब थी। संयुक्त समिति के अंदर हमारी एक भी बात नहीं मानी गई। ढाई महीने में ने बैठकें हुई और आखिरी बैठक में बोले कि आप अपना क़ानून लिख लो हम अपना क़ानून लिख लेंगे। यही करना था तो संयुक्त समिति बनाने का ढोंग ही क्यों किया गया? हम अपना अपना क़ानून तो शुरू में ही लिखकर बैठे थे। समिति में निर्णय हुआ कि दोनों क़ानून कैबिनेट के सामने रखे जाएंगे और कैबिनेट तय करेगी कि कौन सा क़ानून मंज़ूर करना है। यहां भी सरकार ने धोखा किया। कैबिनेट के के सामने केवल पांच मंत्रियों द्वारा क़ानून रखा गया।

धोखा नं. 2: जुलाई महीने में सरकार ने जोर-जोर से कहा कि वह सख्त लोकपाल क़ानून लेकर आएंगे। लेकिन जो लोकपाल बिल अगस्त में संसद में प्रस्तुत किया गया वह भ्रष्टाचार को दूर करने की बजाए,  भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने और  भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को प्रताड़ित करने वाला था। मसलन, उसके एक प्रावधान के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति लोकपाल को  भ्रष्टाचार की शिकायत करेगा, तो पर्याप्त सबूत न होने पर शिकायतकर्ता को दो साल की क़ैद हो सकती है दूसरी तरफ  भ्रष्टाचार साबित होने पर  भ्रष्टाचारी अफसर को केवल छ: महीने की क़ैद होगी। एक भद्दा मज़ाक और धोखा था सरकारी लोकपाल बिल।  भ्रष्टाचारी के खिलाफ छ: महीने की क़ैद और शिकायतकर्ता को दो साल की क़ैद।

धोखा नं. 3:  अन्ना ने इस क़ानून के खिलाफ आवाज़ उठाई, उन्होंने कहा कि 16 अगस्त से आमरण अनशन करूंगा। लेकिन 16 अगस्त की सुबह वे बापू की समाधि (राजघाट) के लिए निकले ही थे कि उन्हें गिरफ्तार कर, तिहाड़ की उसी जेल में डाल दिया गया जिसमें कलमाड़ी और राजा जैसे  भ्रष्टाचारी क़ैद थे। कैसी विडंबना थी?  भ्रष्टाचार करने वाले और  भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले एक ही जेल में क़ैद थे। अन्ना पर आरोप था कि उनके बाहर रहने से देश और समाज की शांति को ख़तरा है। उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और फिर  सात दिन के लिए जेल भेज दिया गया। इसके खिलाफ सारा देश  खड़ा हो गया। देश में आग लग गई। लाखों करोड़ों लोग सड़कों पर उतर आए। जेल भरो आंदोलन शुरू हो गया। लेकिन सरकार की जेलें छोटी पड़ गई। बड़े-बड़े स्टेडियम्स को जेल बनाया गया। लेकिन वे भी छोटे पड़ गए।
गिरफ्तार के चंद घंटों बाद ही सरकार ने अन्ना को रिहा कर दिया। सवाल यह उठता है कि सरकार की नज़रों में जो अन्ना हज़ारे कुछ घंटों पहले देश और समाज की शांति के लिए ख़तरा थे, और जिन्हें सात दिन के लिए जेल भेजा गया था, शाम होते होते वे अचानक शांति  के लिए ख़तरा कैसे नहीं बचे? इसका मतलब सरकार मनचाहे तरीके से, जिसे जब चाहे जेल में डाल सकती है और जब चाहे रिहा कर सकती है। क्या इस देश में कोई क़ानून है? या केवल सत्ता में बैठे लोगों की मनमर्जी  चलती है।

धोखा नं. 4: अन्ना के 12 दिन के अनशन के बाद 27 अगस्त को सर्वसम्मति से सारे देश के सामने अन्ना की तीन बातें मंजूर कीं। इनमें से दो बाते थीं - सिटीज़न चार्टर और निचली नौकरशाही को लोकपाल के दायरे में लाया जाएगा। प्रधानमंत्री ने अन्ना को चिट्ठी लिखकर संसद के इस प्रस्ताव के बारे में बताया और अन्ना से अनशन वापस लेने की अपील की। प्रधानमंत्री के निजी आश्वासन पर अन्ना ने भरोसा किया। अन्ना ने अपना अनशन वापस ले लिया। लेकिन प्रधानमंत्री की भी नीयत ख़राब थी। 13 दिसंबर को प्रधानमंत्री ने कैबिनेट की अध्यक्षता करते हुए सिटीज़न चार्टर के लिए एक अलग बिल मंज़ूर कर लिया जो बेहद कमज़ोर है। यह रिश्वतखोरी से दुखी जनता को कोई न्याय नहीं दिलाता और बनने के कुछ दिन बाद ही ध्वस्त हो जाएगा। यह बिल संसद के 27 अगस्त के प्रस्ताव की अवहेलना थी। प्रधानमंत्री ने सीधे सीधे संसद की अवहेलना की थी। संसद को धोखा दिया था। सवाल उठता है कि अगर प्रधानमंत्री खुद संसद को सीधे सीधे  इस तरह धेखा देने लगेंगे तो इस देश का भविष्य क्या रह जाएगा? 

धोखा नं. 5: कांगे्रस के अभिषेक  मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति के विचार के लिए यह बिल भेजा गया। अभिषेक मनु सिंघवी ने भी धेखा दिया। उन्होंने क़ानून का एक ऐसा मसौदा तैयार किया जो कि संसद के 27 अगस्त के प्रस्तावों के बिल्कुल विपरीत था और बिल्कुल कमज़ोर था। स्थायी समिति के 30 में से 2 सदस्य तो इसकी बैठकों में कभी आए ही नहीं। बाकी 28 में से 17 सदस्यों ने इसका विरोध् किया। कुल मिलाकर देखें तो अभिषेक मनु सिंघवी ने जो प्रस्ताव दिए वे 30 में कुल 11 सदस्यों को ही मंजूर थे। इनमें से 7 कांगे्रस के थे, एक लालू यादव थे और एक अमर सिंह थे। तो कांग्रेस ने  अमर सिंह और लालू यादव के साथ बैठकर  भ्रष्टाचार के खिलाफ क़ानून का मसौदा तैयार किया। अब आप खुद ही सोच लीजिए किए यह क़ानून कैसा रहा होगा।

धोखा नं. 6: 10 अक्टूबर को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर आश्वासन दिया कि सरकार एक सशक्त बिल लाएगी। अन्ना को 15 अक्टूबर से जन जागरण यात्रा पर निकलना था। प्रधानमंत्री के लिखित आश्वासन के बाद अन्ना ने अपनी यात्रा रद्द कर दी। अन्ना ने बार बार देश के सामने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री पर भरोसा है लेकिन प्रधानमंत्री की तो नीयत ही ख़राब थी। 22 दिसंबर को संसद में एक ऐसा बिल प्रस्तुत किया गया जो देश के साथ एक बहुत बड़ा धोखा था। यह बिल सीधे-सीधे  भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने की बात करता है।  भ्रष्टाचार करने वाले अफसरों और नेताओं को अपना बचाव करने के लिए सरकार मुफ्त में वकील मुहैया करवाएगी।  भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले शिकायतकर्ता के खिलाफ अलग से केस कोर्ट में दर्ज करने के लिए भी, आरोपी  भ्रष्ट नेताओं और अफसरों को मुफ्त में वकील उपलब्ध् कराया जाएगा। इस क़ानून के माध्यम से  भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के लिए जांच के भी सारे कायदे क़ानून बदल दिए गए हैं। जांच के दौरान ही  भ्रष्टाचारियों को समय समय पर इकट्ठे सबूत दिखाए जाएंगे। इससे  भ्रष्टाचारी को सबूतों को नष्ट करने और गवाहों को डरा धमका कर चुप कराने का पर्याप्त अवसर मिलेगा। एफआईआर दर्ज करने से पहले  भ्रष्टाचारी अफसर से पूछा जाएगा। इसके बाद भी अगर किसी के खिलाफ  भ्रष्टाचार साबित हो गया तो उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से पहले भी उससे पूछा जाएगा।

धोखा नं. 7: एक तरफ तो केवल 5 प्रतिशत नेता और अफसर ही इसके दायरे में लाए गए हैं। लेकिन चंदे से चलने वाले देश के सारे सामाजिक और धार्मिक संस्थान इसके दायरे में आएंगे। जैसे मंदिर, मिस्जद, गुरुद्वारे, चर्च, यूथ क्लब, स्पोट्र्स क्लब, प्राइवेट स्कूल, प्राइवेट कॉलेज, प्राइवेट अस्पताल आदि सब इसके दायरे में आएंगे। हद तो यह हो गई कि इन संस्थानों में काम करने वाले पंडित, पादरी, फादर, सिस्टर, बिशप, मौलवी, मुफ्ती, अध्यापक, डॉक्टर एवं अन्य कर्मचारी इस क़ानून के तहत सरकारी अफसर माने जाएंगे और लोकपाल इनके खिलाफ  भ्रष्टाचार की जांच कर सकेगा। प्रधानमंत्री को सरकार, अफसर और  नेता ईमानदार लगते हैं लेकिन इस देश की जनता बेईमान नज़र आती है। 

धोखा नं. 8: राहुल गांधी ने कहा कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और सारी सरकार उस पर लग गई। एक भ्रम फैलाया जा रहा है कि संवैधानिक दर्जा देने से लोकपाल सख्त बन जाएगा। यह तो वही बात हुई कि एक मरे हुए आदमी को बहुत सारे गहने पहना दो। अगर लोकपाल को मज़बूत बनाना है तो उसे संवैधानिक दर्जे की नहीं, सीबीआई की ज़रूरत है। सीबीआई, सरकार के हाथों की कठपुतली है। सरकार सीबीआई का दुरुपयोग करती है। केंद्र में सरकार डोलने लगे तो सीबीआई को मायावती, मुलायम, लालू या जयललिता के पीछे छोड़ दो। वो दौडे़-दौड़े आकर सरकार बचा लेंगे। राहुल गाँधी सीबीआई को सरकारी शिकंजे से मुक्त कराने की बात क्यों नहीं करते? और यह कैसा जनतंत्र है? राहुल गाँधी ने कहा कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दे दो तो सारी सरकार उसमें लग गई दूसरी तरफ देश के लाखों करोड़ों लोग सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि अन्ना वाला सख्त लोकपाल पारित करो तो सरकार एक नहीं सुनती। ये कैसा जनतंत्र है? ये कैसी लोकतांत्रिक सरकार है़? ये देश के लोगों की नहीं सुनती और एक आदमी के इशारे पर नाचने लगती है।

धोखा नं. 9: अन्ना के आंदोलन और उनकी टीम की छवि ख़राब करने के लिए बिल्कुल मनगढ़ंत और बेबुनियाद आरोप लगाए गए और षड्यंत्रों के तहत उन्हें फंसाने की चाल चली गई।
पहले तो प्रशांत भूषण और शांति भूषण के खिलाफ एक फर्जी सीडी बनाकर उन्हें बदनाम करने की कोशिश की गई। बाद में लेबोरेट्री की जांच में यह सीडी फर्जी पाई गई। 
अन्ना हज़ारे को कांग्रेस  प्रवक्ता मनीष तिवारी ने सिर से पांव तक  भ्रष्टाचार में डूबा हुआ बताया। दिग्विजय सिंह और उनके साथी कई कांगे्रसी नेताओं ने अन्ना हज़ारे को आर.एस.एस. और बी.जे.पी. का मुखौटा बताया। कांगे्रस के एक और नेता बेनीप्रसाद वर्मा ने अन्ना को हरीशचंद्र की औलाद नहीं है तक कह डाला।
अन्ना हज़ारे को उनकी टीम से तोड़ने के लिए करोड़ों रुपए ख़र्च किए गए. किरण बेदी एक ईमानदार आईपीएस अफसर रही हैं। पूरी ज़िंदगी उन्होंने एक रुपए की रिश्वत नहीं ली और अपनी ईमानदारी के लिए नाम कमाया। सरकार ने आयकर विभाग का दुरुपयोग करते उनके बारे में कुछ जानकारियां निकालीं और फिर उन्हें तोड़-मरोड़ कर उनके खिलाफ प्रस्तुत किया गया। उनके खिलाफ  भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए। अरविंद केजरीवाल जोकि एक आयकर आयुक्त जैसे पद पर रह चुके हैं, और जिन्होंने कभी एक पैसे की रिश्वत नहीं ली, उनके खिलाफ भी  भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगाए गए।
इसी तरह कुमार विश्वास को आरएसएस का एजेंट तक कहा गया।
इनमें से एक भी आरोप आज तक साबित नहीं हुआ। केवल इन लोगों की छवि ख़राब करने के लिए सरकार ने एक के बाद एक षड्यंत्र रचे।

धोखा नं. 10: सरकार ने लोकसभा में एक बहुत ही कमज़ोर लोकपाल बिल पेश किया। इस बिल की देशभर में आलोचना हुई। बिल इतना ख़राब था कि इसके खिलाफ विपक्ष ने लोकसभा में 55 और राज्यसभा में 187 संशोधन  प्रस्तुत किए। लेकिन सरकार तो अड़ी हुई थी। ज़िद पर थी। किसी की सुनने को तैयार ही नहीं थी। सरकार ने ठान लिया था कि न तो देश के लोगों की सुनेगी और न संसद में विपक्ष की सुनेगी।
लोकसभा में यूपीए का बहुमत है। इस बहुमत का दुरुपयोग कर सरकार ने अपना कमज़ोर बिल लोकसभा में तो पास करा लिया। लेकिन राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं है। वहां अगर वोटिंग हो जाती तो इस बिल में कई संशोधन हो सकते थे। इसमें कई अच्छे संशोधन थे और इनसे बिल की कमियां दूर हो सकती थीं लेकिन सरकार ने लालू यादव को आगे कर संसद में हंगामा खड़ा करने का षड्यंत्र  रचा। लालू यादव की पार्टी के एक सांसद ने सदन में ही बिल की प्रतियां फाड़ कर फेंक दी और हंगामा कर दिया। इसके बाद राज्य सभा में वोटिंग नहीं होने दी गई।

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