Tuesday, May 17, 2011

जन लोकपाल कानून को लेकर भ्रम


लोकपाल को लेकर लोगों को भ्रमित करने का काम भी शुरू हो गया है. चर्चा चलाई जा रही है कि लोकपाल बनेगा तो लोकतन्त्र नहीं रहेगा. तानाशाही आ जाएगी. एक ताकतवर लोकपाल लोकतान्त्रिक तरी से बनी संस्थाओं के ऊपर हो जाएगा... आदि आदि. ऐसी अधिकतर चर्चा उन लोगों द्वारा फैलाई जा रहीं हैं जो अभी तक कानून की खामियों का फायदा उठाकर खुलेआम भ्रष्टाचार में लगे थे. प्रस्तावित लोकपाल की लोकिप्रयता को देखते हुए उन्हें पहली बार डर पैदा हुआ है कि अगर यह कानून बन गया तो जनता उन्हें जेल भिजवाने लगेगी. इस डर से तिलमिलाए लोग, जिसमें नेता और अफसरों सहित तरह तरह के लोग शामिल हैं, अब आम जनता को भ्रमित करने में लग गए हैं. इनका सीधा सा मकसद है कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सख्त कानून की मांग का जो माहौल अन्ना हज़ारे के उपवास के दौरान बना है, उसे कमज़ोर कर दिया जाए. कहीं भावुक रूप से तो कहीं लोगों को डराकर कमज़ोर लोकपाल के पक्ष में माहौल बना दिया जाए. 

मोटे तौर पर, लोकपाल कानून बनवाने के दो मकसद हैं - पहला मकसद है कि भ्रष्ट लोगों को सज़ा और जेल सुनिश्चित हो. भ्रष्टाचार, चाहे प्रधानमन्त्री का हो या न्यायधीश का, सांसद का हो या अफसर का, सबकी जांच निष्पक्ष तरीके से एक साल के अन्दर पूरी हो. और अगर निष्पक्ष जांच में कोई दोषी पाया जाता है तो उस पर मुकदमा चलाकर अधिक से अधिक एक साल में उसे जेल भेजा जाए. दूसरा मकसद है आम आदमी को रोज़मर्रा के सरकारी कामकाज में रिश्वतखोरी से निजात दिलवाना. क्योंकि यह एक ऐसा भ्रष्टाचार है जिसने गांव में वोटरकार्ड बनवाने से लेकर पासपोर्ट बनवाने तक में लोगों का जीना हराम कर दिया है. इसके चलते ही एक सरकारी कर्मचारी किसी आम आदमी के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करता है.

प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में इन दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सख्त प्रावधान रखे गए हैं. इन आज किसी भी गली मोहल्ले में आम आदमी से पूछ लीजिए कि उस इन दोनों तरह के भ्रष्टाचार से समाधान चाहिए या नहीं. देश के साथ ज़रा भी संवेदना रखने वाला कोई आदमी मना करेगा? सिवाय उन लोगों के जो व्यवस्था में खामी का फायदा उठा उठाकर देश को दीमक की तरह खोखला बना रहे हैं. 

लोकपाल कानून के खिलाफ प्रचार तथ्यों को तोड़मोड़कर किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि अगर ऐसा लोकपाल आ गया तो न्यायपालिका की स्वतन्त्रता खतरे में पड़ जाएगी, लोकतान्त्रिक तरीके से चुने गए प्रधानमन्त्री का सम्मान कम हो जाएगा. दरअसल प्रधानमन्त्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने का मतलब यह नहीं है कि लोकपाल का पद इन दोनों से बड़ा हो जाएगा. इसका सिर्फ इतना सा मतलब है कि प्रधानमन्त्री या उनके दफ्तर में कोई भ्रष्टाचार का आरोप हो अथवा किसी न्यायधीश पर भ्रष्टाचार का आरोप हो तो क्या उनकी जांच करने का अधिकार लोकपाल को होना चाहिए. जांच में अगर कोई दोषी पाया जाता है तो उसके खिलाफ अदालत में मुकदमा चलाने का अधिकार भी लोकपाल के पास होना चाहिए. अब यह सवाल उठाया जाना लाज़िमी है कि किसी प्रधानमन्त्री या किसी जज के भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच के लिए सरल कानून बनाने से लोकतन्त्र की गरिमा बढ़गी या कम होगी. ज़ाहिर है इनके प्रति आम आदमी का विश्वाश बढ़ेगा और इनकी गरिमा भी बढ़ेगी.

एक और सवाल जो बार बार उठाया जा रहा है कि सरकारी दफ्तरों में जनता की रोज़मर्रा की शिकायतों को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहिए. तर्क दिया जा रहा है कि इससे लोकपाल के दफ्तर में शिकायतों का अम्बार लग जाएगा और लोकपाल काम ही नहीं कर सकेगा. यह तर्क एक लोकतान्त्रिक देश में अजीब लगता है. देश का आम आदमी सरकारी दफ्तरों में धक्के खा रहा है, जिल्लतें झेल रहा है और 63 साल के लोकतन्त्र में अब भी हम उससे नज़रे चुराना चाहते हैं. उसका समाधान नहीं देना चाहते. तर्क देते हैं कि अगर उसका समाधान निकालने बैठ गए तो संस्थाएं फेल हो जाएंगी. तो भला फिर किसके लिए चलाया जा रहा है यह लोकतान्त्रिक ढांचा? कुछ खास राजनीतिक, अफसरी और व्यावसायिक लोगों को देश लूटते रहने की आज़ादी देने के लिए? 

जन्तर मन्तर पर अन्ना हज़ारे के साथ लाखों की संख्या में खड़ी हुई जनता यही मांग बार बार उठा रही थी. देश के कोने कोने से लोगों ने इस आन्दोलन को समर्थन इसलिए नहीं दिया था कि केन्द्र और राज्यों में लालबत्ती की गाड़ियों में सरकारी पैसा फूंकने के लिए कुछ और लोग लाए जाएं. बल्कि इस सबसे आजिज़ जनता चाहती है कि भ्रष्टाचार का कोई समाधान निकले, रिश्वतखोरी का कोई समाधान निकले. भ्रष्टाचारियों में डर पैदा हो. सबको स्पष्ट हो कि भ्रष्टाचार किया तो अब जेल जाना तय है. रिश्वत मांगी तो नौकरी जाना तय है. 

एक अच्छा और सख्त लोकपाल कानून आज देश की ज़रूरत है. लोकपाल कानून शायद देश का पहला ऐसा कानून होगा जो इतने बड़े स्तर पर जन चर्चा और जन समर्थन से बन रहा है.  जन्तर मन्तर पर अन्ना हज़ारे के उपवास और उससे खड़े हुए अभियान के चलते लोकपाल कानून बनने से पहले ही लोकिप्रय हो गया है. ऐसा नहीं है कि एक कानून के बनने मात्र से देश में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा या इसके बाद रामराज आ जाएगा. जिस तरह भ्रष्टाचार के मूल में बहुत से तथ्य काम कर रहे हैं उसी तरह इसके निदान के लिए भी बहुद से कदम उठाने की ज़रूरत होगी. और लोकपाल कानून उनमें से एक कदम है.

1 comment:

  1. इस देश में भ्रष्‍टाचार की जड़ जरूरत से ज्‍यादा कठोर कानून और उनका पालन सुनि‍श्‍चि‍त करवाने के लि‍ए तैनात इंस्‍पेक्‍टर हैं। वे आपके केस में खामि‍याँ (जोकि‍ कानूनन सही होती हैं) नि‍काल कर आपका केस रोक सकते हैं। आपको उन खामि‍यों को दूर करने/अनदेखा करने के लि‍ए रि‍श्‍वत देनी पड़ती है। अगर आप उसे रि‍श्‍
    वत न दें तो उसका कुछ नहीं बि‍गड़ता बल्‍ि‍क आपका काम अटक जाता है। जन लोकपाल (यदि‍ बन भी जाए) तो उस इंस्‍पेक्‍टर को उन खामि‍यों को अनदेखा करने का आदेश नहीं दे सकता। इससे वह रि‍श्‍वत भले ही न ले, लेकि‍न आपका काम हो जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। और हमारी आपकी समस्‍या काम होने की ज्‍यादा है, उसके रि‍श्‍वत लेने या नहीं लेने की इतनी नहीं है।

    इसलि‍ए हमें (या कह लें मुझे) जन लोकपाल की बजाय कठोर कानूनों को आसान बनाने की जरूरत ज्‍यादा है। कानून सरल होंगे, इंस्‍पेक्‍टर के पास आपके केस में खामियाँ नि‍कालने का मौका नहीं होगा, तो रि‍श्‍वत का कोई मौका ही नहीं बनता। जब तक कानून सरल नहीं होंगे, भ्रष्‍टाचार चलता रहेगा, लोग स्‍वयं ही रि‍श्‍वत देने को मजबूर होते रहेंगे। लोकपाल के पास जो शि‍कायत लेकर जाएगा, उसका काम उन्‍हीं खामि‍यों की वजह से लटका रहेगा।

    कृपया इस वि‍षय में अपनी टि‍प्‍पणि‍याँ अवश्‍य दें।

    ReplyDelete